भारत के लोकतंत्र और न्याय प्रणाली पर एक बड़ा सवालिया निशान लगाते हुए राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) ने मालेगांव बम धमाका मामले में भाजपा सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर समेत अन्य सात आरोपियों के खिलाफ फांसी की सजा की मांग की है। यह वही प्रज्ञा ठाकुर हैं जिन्हें भारतीय जनता पार्टी ने 2019 के आम चुनावों में भोपाल से टिकट देकर संसद के पवित्र मंच पर बिठाया था।
29 सितंबर 2008 को मालेगांव में हुए बम धमाके ने न सिर्फ निर्दोषों की जान ली थी, बल्कि भारत में आतंकवाद की नई परिभाषा भी गढ़ी थी — जहां आरोपियों का धर्म बहस का विषय बन गया। प्रारंभिक जांच और चार्जशीट में प्रज्ञा ठाकुर का नाम प्रमुखता से सामने आया था, फिर भी भाजपा ने उन्हें राष्ट्रभक्ति का प्रतीक बनाकर पेश किया। आज जब एनआईए खुद फांसी की मांग कर रही है, भाजपा की उस राजनीतिक चूक की गंभीरता और भी सामने आ गई है।
प्रज्ञा ठाकुर के संसद पहुंचने की कहानी केवल एक चुनावी रणनीति नहीं थी, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की आत्मा पर सीधा आघात था। संसद, जो पूरे देश की आस्था का केंद्र है, वहां एक आतंक के आरोपी को बैठाना देश की न्याय व्यवस्था और जनभावनाओं के साथ खिलवाड़ था। भाजपा ने सत्ता के लोभ में वह मर्यादा तोड़ी, जो लोकतंत्र का आधार है।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर इतने वर्षों तक प्रज्ञा ठाकुर कैसे बचती रहीं? जांच एजेंसियों पर राजनीतिक दबाव, गवाहों को कमजोर करना, सबूतों को नष्ट करने की कोशिशें और सरकारी संरक्षण — इन सबने मिलकर उन्हें बचाने की कवायद की। सत्ता का कवच ओढ़े प्रज्ञा ठाकुर कानून से लगातार बचती रहीं, और जनता के सामने राष्ट्रवादी आवरण में प्रस्तुत की जाती रहीं।
जब देश 26/11 मुंबई हमले में आतंकवाद के खिलाफ एकजुट हुआ था, तब धर्म कोई मुद्दा नहीं था। कसाब जैसे आतंकियों को सामूहिक रूप से दोषी ठहराया गया था। लेकिन मालेगांव के आरोपियों के मामले में जाति और धर्म की परतें बिछाई गईं, जो दिखाता है कि सत्ता में बैठे लोग आतंकवाद को भी धर्म के चश्मे से देखने लगे हैं।
एनआईए की ताजा कार्रवाई भाजपा की नैतिक जिम्मेदारी तय करती है। पार्टी को जवाब देना चाहिए कि कैसे एक गंभीर अपराध की आरोपी को टिकट दिया गया, प्रचारित किया गया, और संसद तक पहुंचाया गया। आज जब अदालत में फांसी की मांग हो रही है, तो वह चुप्पी जो वर्षों से थी, अब अपराध बन चुकी है।
अगर भारत को सचमुच आतंकवाद से लड़ना है, तो उसे जाति, धर्म और राजनीति के जाल से ऊपर उठकर न्याय देना होगा। संसद को आतंक से मुक्त करना और लोकतंत्र को फिर से पवित्र बनाना आज की सबसे बड़ी जरूरत है।
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