भारत में उग्रवादियों की लड़ाई को धर्म और जाति के बीच देखने की ललक एक खतरनाक मोड़ ले रही है। ताजा मामला मालेगांव विस्फोट का है, जहां राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने भाजपा सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर सहित आठ चार लोगों को फांसी की सजा की मांग की है। ये वही प्रज्ञा ठाकुर हैं जिनमें भारतीय जनता पार्टी शामिल है जिन्हें 2019 में भोपाल से संसद भेजा गया था और संसद के पवित्र मंच पर शामिल किया गया था।
29 सितम्बर 2008 को महाराष्ट्र के मालेगांव में हुए विस्फोट ने पूरे देश को दहला दिया था। इस बम में छह असहाय लोग मारे गए और 100 से अधिक लोग घायल हो गए। प्रारंभिक जांच में प्रज्ञा ठाकुर सहित अन्य लोगों के नाम सामने आए, कथित संबंध 'हिंदू आतंकवादी' के नेटवर्क से पता चला।
अब जब वामपंथी जैसे केंद्रीय जांच एजेंसी ने अदालत में खुद यह स्वीकार किया है कि अपराध बेहद गंभीर था और फांसी की सजा की मांग की गई है, तो सवाल यह है कि इतने सालों तक यह मामला क्यों लटकाया जा रहा है? और क्या सत्ता में बैठे कुछ दिग्गज लोग प्रज्ञा ठाकुर और अन्य चारो को वापसी में भूमिका निभाते रहे?
पुराने जमाने के मृतकों का कहना है कि विस्फोट एक "बेहद घृणित कृत्य" था और "समाज के लिए खतरा पैदा करता है", इसलिए इन तीनों को सबसे कड़ी सजा दी जानी चाहिए। बैल्ट के अनुसार, प्रज्ञा ठाकुर की बाइक का अनोखा रूपांकन किया गया था और स्क्रैच रचने में उनकी सक्रिय भूमिका थी। फिर भी, भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें साधारण टिकटें दीं, प्रचार में वृद्धि-चाल्कर को पेश किया और संसद में भेजा। यह केवल संसद की गरिमा के साथ ही नहीं, बल्कि उस न्याय प्रक्रिया पर भी सवाल उठाता है, जो सान्या तक लटकती रही।
इस मामले में भी जाति और धर्म का एंगल बार-बार उभरकर सामने आता है। देश में जब भी किसी मुस्लिम अपराधी को पकड़ा जाता है, तो उसे पूरे समुदाय से शामिल देखा जाता है। इसके अलावा जब पुरोहितों का धर्म बहुसंख्यक वर्ग से मंदिर हो, तो उन्हें "निर्द्वीप", "राष्ट्रभक्त" और "झूठा फंसाया गया" बताया जाता है। प्रज्ञा ठाकुर के समर्थन में सत्य पक्ष द्वारा जो मोंटेन मेड है, उसने साफ किया है कि भगवन् को भी जाति और धर्म के अनुरूप देखने की खतरनाक कोशिशें हो रही हैं।
यह भी महत्वपूर्ण है कि 26/11 मुंबई हमले के दौरान देश में बिना किसी भेदभाव के एकजुटता के खिलाफ हिंसा सामने आई थी। कसाब की तरह साइंटिस्ट के खिलाफ कोई धर्मगत टिप्पणी नहीं की गई थी। तो फिर मालेगांव के आदर्श के लिए धर्म या जाति की ढाल क्यों तैयार की गई?
बीजेपी ने प्रज्ञा ठाकुर को न सिर्फ टिकट दिया, बल्कि चुनाव जिताने के लिए पूरी ताकत लगा दी। जब उन्होंने संसद में सलामी बल्लेबाज और महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को 'देशभक्त' बताया, तब भी पार्टी ने अधूरे-अधूरे शब्दों में निंदा कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया। असल में बीजेपी ने प्रज्ञा ठाकुर को संसद में लोकतंत्र के मंदिर को अपवित्र करने का काम किया है।
अब जबकि एनआईए खुद फांसी की मांग कर रहा है, तो भाजपा और उन सभी ताकतों को जवाब देना चाहिए जो इतने वर्षों तक प्रज्ञा ठाकुर और अन्य आरोपियों को राजनीतिक संरक्षण देती रहीं। न्याय की प्रक्रिया में देरी और राजनीतिक हस्तक्षेप ने देश की न्याय व्यवस्था पर गहरा सवालिया निशान लगाया है।
देश को तय करना होगा कि वह आतंकवाद के खिलाफ बिना जाति-धर्म के भेद के लड़ेगा या फिर राजनीतिक फायदे के लिए खतरनाक चुप्पी साधे रहेगा।
आतंकवाद न हिंदू होता है, न मुसलमान — वह सिर्फ आतंकवाद है, और उसे उसी नजर से देखा जाना चाहिए।
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