साल 1707, अहमदनगर। बादशाह औरंगजेब का कमजोर शरीर बिस्तर पर पड़ा था। उसकी कांपती उंगलियाँ एक पुराने, मैल और खून से सने कुरते को पकड़ने की कोशिश कर रही थीं। कमरे में धूप की एक हल्की किरण पड़ी, और उसी में उस कुरते पर जमे दाग़ चमक उठे—कुछ फीके, कुछ गहरे। लेकिन सबसे ज्यादा भयानक बात यह थी कि—रात में यह कुरता हर बार ताजा खून से भीग जाता था।
वह दिन जिसने सब बदल दिया
यह वही कुरता था, जिसे उसने उस मनहूस दिन पहना था, जब उसने छत्रपति संभाजी महाराज को तड़पा-तड़पाकर मरवाया था।
मार्च 1689, औरंगजेब का दरबार। सामने बेड़ियों में जकड़े संभाजी महाराज खड़े थे। उनका शरीर थका हुआ था, पर आंखों में वही चिर-परिचित ज्वाला थी।
औरंगजेब की आंखों में क्रूरता थी। उसने संभाजी की ओर देखा और एक ठंडी आवाज़ में कहा, "या इस्लाम कबूल करो, या मौत चुनो।"
संभाजी हंसे।
"इस शरीर को जितना चाहे काट ले औरंगजेब, लेकिन यह सिर तेरे सामने कभी नहीं झुकेगा।"
गुस्से से कांपते हुए औरंगजेब ने अपने जल्लादों को इशारा किया।
"इनकी आंखें निकाल दो!"
"इनकी जीभ काट दो!"
"इनका शरीर तब तक काटते रहो, जब तक आत्मा तड़प-तड़प कर न निकले!"
संभाजी की हर चीख के साथ खून के छींटे औरंगजेब के कुरते पर गिरते रहे। लेकिन मरते दम तक उन्होंने दया की भीख नहीं मांगी। उनकी खून से सनी लाश टुकड़ों में काटकर दरबार के बाहर फेंक दी गई।
लेकिन एक रहस्य रह गया—औरंगजेब का कुरता कभी साफ नहीं हुआ।
खूनी कुरते की शापित रातें
इसके बाद अजीब घटनाएँ शुरू हुईं। जब भी वह कुरता पहनता, उसे लगता जैसे कोई उसके कानों में फुसफुसा रहा हो—"औरंगजेब, तू बच नहीं पाएगा!"
हर रात उसे सपनों में एक भयानक दृश्य दिखता—संभाजी महाराज खून से लथपथ खड़े हैं, बिना आंखों के, बिना जीभ के, लेकिन उनकी मुस्कराहट वैसी ही तेज।
"तेरी सल्तनत मिट जाएगी औरंगजेब। तुझे भी वही दर्द मिलेगा, जो तूने हमें दिया था।"
धीरे-धीरे औरंगजेब पागल होने लगा। रातों को वह अपने कमरे से चीखता हुआ भागता। कई बार उसने हुक्म दिया कि कुरते को आग में जला दिया जाए, लेकिन अगली सुबह वह फिर बिस्तर पर पड़ा मिलता—उसी ताजा खून के साथ।
मराठों का तूफान और औरंगजेब का अंत
संभाजी महाराज की मौत के बाद मराठे और भी उग्र हो गए। एक-एक किला गिरने लगा, मुगलों की सल्तनत हिल गई। औरंगजेब, जिसने 50 साल तक हिंदुस्तान पर राज किया था, अब दर-ब-दर भाग रहा था।
वह इतना डरा हुआ था कि उसने अपना खुद का जनाजा तैयार करवा लिया था। आखिरी समय में उसने अपनी मौत के लिए एक पत्र लिखा, जिसमें लिखा था—
"मैं, जिसने पूरी दुनिया पर राज किया, आज कफन खरीदने के लिए भी अपनी कमाई से पैसे दे रहा हूँ। मैं हार गया।"
3 मार्च 1707 की सुबह, उसके सेवक जब कमरे में पहुंचे, तो उन्होंने देखा—औरंगजेब की लाश बिस्तर पर पड़ी थी, और उसका कुरता खून से सराबोर था।
लेकिन सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि—कमरे में कहीं भी खून का कोई निशान नहीं था।
इतिहास की सबसे बड़ी सजा
औरंगजेब की मौत के बाद उसकी कब्र को बिना किसी शाही सम्मान के दफना दिया गया। कोई बड़ा मकबरा नहीं बना, कोई किला उसके नाम पर नहीं रहा।
आज भी, उसकी कब्र को देखने वाले कहते हैं कि—अगर चांदनी रात में ध्यान से देखा जाए, तो उसकी कब्र से एक कुरता लहराता दिखता है—जिस पर ताजा खून के धब्बे चमकते हैं।
संभाजी महाराज की आत्मा अब भी पहरा दे रही थी। और शायद हमेशा देती रहेगी…
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